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स्वच्छ भारत की दौड़ में देहरादून ने 62वीं रैंक हासिल की, लालकुआं टॉप पर तो ऋषिकेश रह गया पीछे

  • लेखक की तस्वीर: ANH News
    ANH News
  • 18 जुल॰
  • 3 मिनट पठन

अपडेट करने की तारीख: 19 जुल॰

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स्वच्छ भारत मिशन को दस वर्ष पूर्ण हो चुके हैं, लेकिन उत्तराखंड आज भी देश के स्वच्छता मानचित्र पर प्रमुख श्रेणियों में कोई स्थान नहीं बना सका है। इस गंभीर स्थिति की पुष्टि हाल ही में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित स्वच्छ सर्वेक्षण 2024–25 के पुरस्कार समारोह में हुई, जहां देशभर के उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले शहरों को सम्मानित किया गया।


उत्तराखंड के लालकुआं नगर को "प्रोमिसिंग स्वच्छ शहर – राज्य श्रेणी" में स्थान अवश्य मिला, किंतु एसडीसी फाउंडेशन द्वारा इसे मात्र एक औपचारिक नामांकन बताते हुए कहा गया कि यह पुरस्कार प्रत्येक राज्य से एक नाम के चयन की बाध्यता के चलते दिया गया प्रतीकात्मक सम्मान है – न कि वास्तविक प्रतिस्पर्धा पर आधारित कोई उपलब्धि।


प्रदेश रैंक नगर निकाय राष्ट्रीय रैंक (2024)

1 लालकुआं 54

2 रुद्रपुर 68

3 मसूरी 169

4 डोईवाल 299

5 पिथौरागढ़ 177

6 भीमताल 350

7 भवाली 352

8 चिन्यालीसौड़ 357

9 कोटद्वार 232

10 ऋषिकेश 249

11 विकासनगर 510

12 बड़कोट 527

13 देहरादून 62

14 हल्द्वानी 291

15 रामनगर 295

16 गुलरभोज 631

17 मुनिकीरेती 561

18 नरेंद्रनगर 662

19 लोहाघाट 670

20 हरिद्वार 363


“यह आत्मचिंतन का अवसर है,”

– यह कहना है एसडीसी फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल का, जिन्होंने उत्तराखंड की स्वच्छता रैंकिंग में निरंतर गिरावट और राष्ट्रीय मंच पर राज्य की अनुपस्थिति पर चिंता व्यक्त की।


“राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी है कारण”

अनूप नौटियाल ने कहा कि मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य लगातार राष्ट्रीय रैंकिंग में शीर्ष स्थान प्राप्त कर रहे हैं, जबकि उत्तराखंड हर वर्ष सूची से गायब रहता है। देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश, हल्द्वानी, रुड़की जैसे महत्वपूर्ण शहर लगातार असफल हो रहे हैं। यह किसी एक नगर निकाय की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की विफलता और प्राथमिकता की कमी को दर्शाता है।

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स्वच्छ सर्वेक्षण की श्रेणियां और उत्तराखंड की स्थिति

उन्होंने बताया कि स्वच्छ सर्वेक्षण 2024–25 में देश भर के शहरों को उनकी जनसंख्या के आधार पर पाँच श्रेणियों में विभाजित कर आंका गया –


10 लाख से अधिक


3–10 लाख


50,000–3 लाख


20,000–50,000


20,000 से कम


इनमें इंदौर, सूरत, नोएडा, चंडीगढ़, लखनऊ, उज्जैन, मैसूर, अंबिकापुर, तिरुपति और लोनावाला जैसे शहरों ने निरंतर उत्कृष्ट प्रदर्शन किया, परंतु उत्तराखंड के कोई भी प्रमुख नगर इनमें स्थान नहीं बना सके।


“आवश्यक है दीर्घकालिक और संस्थागत सुधार”

एसडीसी फाउंडेशन ने दीर्घकालिक सुधारों की मांग फिर दोहराई। अनूप ने कहा –


"हमने बार-बार कहा है कि दिखावे की गतिविधियाँ और फोटो खिंचवाने से स्वच्छता नहीं आएगी। अगर हमारे बड़े शहर बार-बार असफल हो रहे हैं, तो कम से कम राज्य को छोटे और मध्यम वर्ग के नगरों में एक ‘मॉडल स्वच्छ शहर’ के रूप में विकसित करने का गंभीर प्रयास करना चाहिए।"


वेस्ट मैनेजमेंट के लिए स्वतंत्र आयोग की माँग

उन्होंने एक स्वतंत्र 'वेस्ट मैनेजमेंट कमीशन' (कचरा प्रबंधन आयोग) के गठन की मांग दोहराई और कहा कि समग्र कचरा प्रबंधन किसी एक विभाग का दायित्व नहीं हो सकता।


"शहरी निकाय, शहरी विकास विभाग, वन विभाग, पर्यटन, जल संस्थान, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड – सभी की भूमिका अहम है। भारत सरकार 2016 में ही प्लास्टिक, ठोस कचरा, ई-कचरा, बायोमेडिकल, खतरनाक और निर्माण/ध्वस्तीकरण कचरे के लिए अलग-अलग कानून बना चुकी है, पर उत्तराखंड में इन सभी धाराओं का समन्वित प्रबंधन पूरी तरह नाकाम है।"


“राज्य में तीर्थाटन और पर्यटन के दबाव को भी समझना होगा”

उन्होंने यह भी चेताया कि राज्य में हर वर्ष अनुमानित 8 से 10 करोड़ तीर्थयात्री और पर्यटक आते हैं, और यह संख्या लगातार बढ़ रही है।


“ऐसे में यदि हम ठोस कचरा प्रबंधन की ओर गंभीर नहीं हुए, तो इससे पर्यावरणीय क्षरण, बीमारियों में वृद्धि, आर्थिक अवसरों की हानि और आम जनता में शासन के प्रति विश्वास की कमी जैसी समस्याएं और गहराएंगी।”


राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं, विशेषज्ञ नेतृत्व की ज़रूरत

नौटियाल ने सुझाव दिया कि वेस्ट मैनेजमेंट कमीशन एक स्वतंत्र निकाय होना चाहिए – न कि राजनीतिक नियुक्तियों या सेवानिवृत्त अधिकारियों के लिए एक और पदस्थापन मंच।


"इस आयोग का नेतृत्व कचरा प्रबंधन के किसी योग्य विशेषज्ञ को सौंपा जाए, जिसे कैबिनेट स्तर की जिम्मेदारी, अधिकार और बजट प्राप्त हो।"


“कचरा प्रबंधन कोई हल्का विषय नहीं”

अपने वक्तव्य के अंत में अनूप नौटियाल ने कहा –


“उत्तराखंड एक पर्यावरणीय रूप से अति-संवेदनशील राज्य है। यहाँ कचरा प्रबंधन सबसे जटिल और असरदार विषयों में से एक है। जब तक नीतियों और संस्थागत व्यवस्थाओं में व्यापक बदलाव नहीं होगा, तब तक हम सिर्फ पीछे ही रहेंगे – और इसका मूल्य हम सभी को चुकाना होगा।”

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