हरेला पर्व क्या है? जानें इसकी उत्पत्ति, सांस्कृतिक महत्व और पर्यावरणीय भूमिका
- ANH News
- 11 घंटे पहले
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उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत में रचा-बसा हरेला पर्व आज हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। यह पर्व न केवल मॉनसून के आगमन और नई फसलों की रोपाई की शुरुआत का प्रतीक है, बल्कि प्रकृति, पर्यावरण और कृषि से जुड़ी गहरी आस्थाओं को भी प्रतिबिंबित करता है।
"हरेला" शब्द कुमाऊंनी भाषा के "हरियाला" से लिया गया है, जिसका अर्थ है हरियाली का दिन। यह पर्व विशेष रूप से उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है, जबकि हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, शिमला, सिरमौर, जुब्बल और किन्नौर क्षेत्रों में इसे "हरियाली" या "रिहाली" के नाम से जाना जाता है।
परंपराओं से जुड़ा पर्व-

हरेला श्रावण मास के पहले दिन मनाया जाता है और इसे भगवान शिव एवं देवी पार्वती के विवाह की स्मृति में भी मनाया जाता है। इस दिन लोग अच्छी फसल, समृद्धि और परिवार की खुशहाली के लिए प्रार्थना करते हैं।
त्योहार से नौ दिन पहले, पांच से सात प्रकार की फसलों के बीज — मक्का, तिल, उड़द, सरसों, जई आदि — को रिंगाल (पहाड़ी बांस) या पत्तों से बनी टोकरियों में बोया जाता है। नौवें दिन इन पौधों को काटा जाता है और आशीर्वाद स्वरूप इन्हें परिवार, पड़ोसियों और रिश्तेदारों में बांटा जाता है।
इस अवसर पर पारंपरिक व्यंजन जैसे खीर, पूरी, पुवा, रायता, छोले आदि बनाए जाते हैं। घरों में मिट्टी से शिव परिवार की मूर्तियाँ बनाकर पूजा की जाती है।
लोकगीतों में रची-बसी आस्था-

हरेला पर्व पर कुमाऊंनी लोकगीतों की विशेष भूमिका होती है। यह गीत प्रकृति, हरियाली, और परिवार की लंबी उम्र की कामना से जुड़े होते हैं। एक लोकप्रिय पारंपरिक गीत इस प्रकार है:
"लाग हरयाव, लाग दशे, लाग बगवाव।
जी रये जागी रया, यो दिन यो बार भेंटने रया।
दुब जस फैल जाए, बेरी जस फली जाया।
हिमाल में ह्युं छन तक, गंगा ज्यूं में पाणी छन तक,
यो दिन और यो मास भेंटने रया।
अगाश जस उच्च है जे, धरती जस चकोव है जे।
स्याव जसि बुद्धि है जो, स्यू जस तराण है जो।
जी राये जागी रया। यो दिन यो बार भेंटने रया।"
हरेला का पर्यावरणीय और कृषि महत्व-

हरेला केवल एक धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व नहीं है, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण का भी प्रतीक बन चुका है। इस दिन पूरे उत्तराखंड में वृक्षारोपण अभियानों का आयोजन किया जाता है। स्कूल, पंचायतें, स्वयंसेवी संस्थाएं और आम नागरिक मिलकर हजारों पौधे रोपते हैं, जिससे हरियाली बढ़े और जलवायु संतुलन बना रहे।
यह पर्व चातुर्मास के आगमन के साथ भी जुड़ा हुआ है, जो पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि की दृष्टि से सबसे उपयुक्त समय माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन बोए गए या लगाए गए पौधे अच्छे से फलते-फूलते हैं, जिससे वर्ष भर समृद्ध फसल मिलती है।
सामुदायिक एकता और सांस्कृतिक मेलजोल का प्रतीक-
हरेला पर्व केवल एक व्यक्तिगत आस्था का पर्व नहीं, बल्कि सामुदायिक उत्सव है। यह सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ाव और पारंपरिक ज्ञान को आगे बढ़ाने का अवसर देता है। यह पर्व आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देता है कि प्रकृति की रक्षा ही जीवन की रक्षा है।
हरेला केवल हरियाली का उत्सव नहीं है, यह एक जीवनशैली, एक संस्कार और एक दृष्टिकोण है — जिसमें पर्यावरण के प्रति आभार, संस्कृति के प्रति गर्व और समाज के प्रति जुड़ाव समाहित है। उत्तराखंड के लिए यह पर्व केवल कृषि की शुरुआत नहीं, बल्कि हरियाली और उम्मीदों की बुवाई का प्रतीक है।