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देवी मानते थे जिसे लोग, वही एक्ट्रेस अपनी शक्ल से डरने लगी, दर्दनाक अंत ने सबको चौंका दिया

  • लेखक की तस्वीर: ANH News
    ANH News
  • 4 मई
  • 3 मिनट पठन

सिनेमा के इतिहास में कुछ कलाकार ऐसे होते हैं, जो परदे से निकलकर सीधे लोगों की श्रद्धा का प्रतीक बन जाते हैं। 1970 के दशक में एक ऐसी ही अभिनेत्री थीं — अनीता गुहा। एक दौर था जब लोग उन्हें देवी मानकर उनके सामने हाथ जोड़ते, उनके पैरों में गिरते और आशीर्वाद मांगते। उनकी फिल्म 'जय संतोषी मां' ने उन्हें आस्था और श्रद्धा का चेहरा बना दिया। मगर जिस महिला को दुनिया पूज रही थी, वह अपने निजी जीवन में टूट रही थी, बिखर रही थी — इतनी कि खुद को आइने में देखना भी गवारा नहीं करती थीं।


बर्मा से कोलकाता, फिर मुंबई का सफर: एक छोटे से गांव की लड़की का सपना

अनीता गुहा का जन्म बर्मा (अब म्यांमार) के पास एक छोटे से गांव में हुआ था। विभाजन के बाद उनका परिवार भारत आकर कोलकाता में बस गया। यहीं उन्होंने अपनी पढ़ाई की और मॉडलिंग में हाथ आजमाना शुरू किया। एक टैलेंट प्रतियोगिता के सिलसिले में वह मुंबई आईं, जहां उन्होंने कॉन्टेस्ट जीत लिया और फिल्मी दुनिया के लिए चुनी गईं।



लेकिन किस्मत ने चाल चली। हिंदी भाषा की जानकारी ना होने के कारण उन्हें वापिस कोलकाता लौटना पड़ा और वहीं रहकर उन्होंने हिंदी सीखी। पर तभी पिता का निधन हो गया और मां ने मुंबई भेजने से मना कर दिया। अनीता कोलकाता में ही बंगाली फिल्मों में काम करने लगीं, लेकिन उनका सपना हिंदी सिनेमा में पहचान बनाना ही था।


सपनों की नगरी में देवी के किरदारों में कैद हो गई पहचान

मुंबई आकर अनीता ने हिंदी फिल्मों में काम शुरू किया, लेकिन उन्हें मुख्य किरदार नहीं मिल रहे थे। उन्होंने पौराणिक फिल्मों का रास्ता अपनाया, जहां उन्हें सीता, लक्ष्मी और दुर्गा जैसे देवी स्वरूपों में दिखाया गया। धीरे-धीरे वे इन्हीं किरदारों में टाइपकास्ट हो गईं।



जब 1975 में 'जय संतोषी मां' का ऑफर आया, तो उन्होंने पहले मना कर दिया — वे इस छवि से बाहर निकलना चाहती थीं। लेकिन निर्देशक विजय शर्मा के लगातार आग्रह पर उन्होंने फिल्म साइन की, और फिर जो हुआ, वो सिनेमा इतिहास में दर्ज हो गया।


'जय संतोषी मां' बनी ऐतिहासिक, लोग थिएटर में उतारते थे आरती

फिल्म जय संतोषी मां रिलीज होते ही एक धार्मिक आंदोलन जैसा माहौल बन गया। गांवों-कस्बों से लोग ट्रैक्टर, बैलगाड़ी, पैदल — जैसे भी संभव हो — फिल्म देखने सिनेमाघरों में पहुंचने लगे। महिलाएं थिएटर में आरती की थाली लेकर जातीं, पर्दे पर अनीता गुहा को देवी के रूप में देखकर सिक्के चढ़ातीं, फूल बरसातीं।



अनीता गुहा जन-जन की संतोषी मां बन गई थीं। उनके पोस्टर घरों में लगने लगे। लोग उनसे आशीर्वाद मांगने लगे। उन्हें सिर्फ अभिनेत्री नहीं, आस्था की मूर्त रूप मान लिया गया था।


श्रद्धा के बंधन में कैद हुई कलाकार की रचनात्मकता

यह भक्ति और प्रसिद्धि, जो सुनहरे ताज की तरह दिखती थी, दरअसल उनके करियर के लिए जंजीर बन गई। कोई निर्माता उन्हें अब किसी और रोल में लेना नहीं चाहता था। उन्हें सिर्फ देवी या पौराणिक किरदारों के ही प्रस्ताव मिलते रहे। इस बंधन से परेशान होकर अनीता ने 1991 में फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कह दिया।



उनकी निजी ज़िंदगी भी आसान नहीं रही। पति का निधन जल्दी हो गया, और संतान ना होने के कारण उन्होंने एकाकी जीवन जीना शुरू कर दिया।


चेहरे पर आई बीमारी, दिल पर छा गया अंधकार

कुछ वर्षों बाद अनीता ल्यूकोडर्मा जैसी त्वचा की बीमारी से ग्रस्त हो गईं। उनके शरीर और चेहरे पर सफेद दाग-धब्बे उभर आए। एक ऐसी महिला, जिसे लोग देवी मानते थे, अब खुद ही अपने बदलते चेहरे से नफरत करने लगी थी। उन्होंने बाहर निकलना, लोगों से मिलना, सब बंद कर दिया।



डिप्रेशन ने उन्हें घेर लिया। वे केवल परिवार के कुछ लोगों से ही बात करती थीं और धीरे-धीरे दुनिया से कटती गईं। उनकी एक अंतिम इच्छा थी — कि जब उनका अंतिम संस्कार हो, तब उनका पूरा मेकअप किया जाए, ताकि लोग उन्हें वैसे ही याद रखें जैसे वे फिल्मों में दिखती थीं।


एक शांत अंत, पर अधूरी सी कहानी

20 जून 2007 को अनीता गुहा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उन्हें कार्डियक अरेस्ट हुआ था। अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार, मेकअप करवाकर किया गया।



अनीता गुहा: एक कलाकार, जो आस्था की मूर्ति बन गई — पर खुद को कभी ना पा सकी

अनीता गुहा की कहानी सफलता और अकेलेपन, श्रद्धा और तिरस्कार, देवी बनने और इंसान खोने की एक भावुक यात्रा है। वे एक ऐसी कलाकार थीं, जिन्हें लोगों ने सिर आंखों पर बैठाया, मगर जब उन्हें अपने लिए एक नई राह चाहिए थी, तो वे सिर्फ एक छवि में कैद होकर रह गईं।

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