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Uttarakhand: प्रदेश में अतिवृष्टि व बादल फटने की घटनाओं का डर, 3000 गाँवों पर मंडरा रहा खतरा

  • लेखक की तस्वीर: ANH News
    ANH News
  • 7 अग॰
  • 2 मिनट पठन
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उत्तराखंड: राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, हिमालयी क्षेत्र के समुद्र तल से 1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों में स्थित लगभग 3000 गांव बादल फटने और अतिवृष्टि जैसी आपदाओं के गंभीर खतरे में हैं। पिछले दस वर्षों में इस क्षेत्र में कुल 57 बादल फटने और अतिवृष्टि की घटनाएं दर्ज हुई हैं, जिनमें से 38 घटनाएं अत्यंत खतरनाक साबित हुईं।


रेजनल लॉकिंग सिस्टम और सतही तापमान के कारण बढ़ा खतरा

शोध के अनुसार, इस क्षेत्र में सतही तापमान (18 से 28 डिग्री सेल्सियस) और टोपोग्राफी (भौगोलिक ऊंचाई एवं स्थलाकृति) की विशेष संरचना के कारण "रीजनल लॉकिंग सिस्टम" बनता है, जो बादल फटने जैसी आपदाओं का मुख्य कारण है। यह लॉकिंग सिस्टम खास तौर पर 1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों में विकसित होता है, जहां मानसूनी मौसम में असामान्य रूप से भारी वर्षा होती है।


80 प्रतिशत घटनाएं 18-28 डिग्री सतही तापमान वाले क्षेत्रों में

अध्ययन में यह पाया गया है कि हिमालयी क्षेत्र में 18 से 28 डिग्री सेल्सियस के बीच सतही तापमान वाले स्थानों पर बादल फटने की 80 प्रतिशत घटनाएं घटित हुई हैं, जबकि 3 से 17 डिग्री तापमान वाले क्षेत्रों में यह घटनाएं केवल 20 प्रतिशत हैं।


यह दर्शाता है कि वे घाटियां जहां तापमान अपेक्षाकृत अधिक होता है और बारिश कम, वहां बादल फटने तथा अतिवृष्टि के लिए उपयुक्त परिस्थितियां बनती हैं। टोपोग्राफी के कारण पहाड़ों की आकृति भी इस लॉकिंग सिस्टम को प्रभावित करती है, जिससे अत्यधिक वर्षा होती है।


अपर गंगा बेसिन में बढ़ती आपदाएं

विशेष रूप से अपर गंगा बेसिन में पिछले दस वर्षों के दौरान छह जिलों में कुल 57 आपदाएं दर्ज हुईं, जिनमें 29 बादल फटने की घटनाएं शामिल हैं। इन जिलों में चमोली सबसे अधिक प्रभावित है, जहां छह बार बादल फटने की घटनाएं हुईं। इसके अलावा टिहरी, रुद्रप्रयाग, जोशीमठ, भिलंगाना, भटवारी, उखीमठ, दशोली, देवप्रयाग, जखोली, थराली और नारायणबगड़ भी प्रभावित क्षेत्र में आते हैं।


घाटियों में बढ़ता तापमान बढ़ा रहा खतरा

शोध में यह भी स्पष्ट हुआ है कि हिमालयी घाटियों में तापमान में वृद्धि भी आपदाओं की संभावना को बढ़ाती है। कई घाटियों में पहाड़ियों की दीवारें एक-दूसरे से टकराकर तापमान को बढ़ाती हैं, जिससे खासकर दोपहर के बाद मौसम अचानक खराब होने लगता है और बादल फटने की घटनाएं होती हैं।


वैज्ञानिकों का विश्लेषण और सुझाव

राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. एमके गोयल, डॉ. मनोहर अरोड़ा, डॉ. पीके मिश्रा, डॉ. संजय जैन और डॉ. एके लोहानी ने इस अध्ययन में महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं। उनका मानना है कि हिमालयी क्षेत्र में सतत् पर्यावरणीय संरक्षण और आपदा प्रबंधन के लिए विशेष योजनाएं बनाना अत्यंत आवश्यक है ताकि आने वाले वर्षों में होने वाली अतिवृष्टि और बादल फटने जैसी आपदाओं से निपटा जा सके।


यह शोध हिमालयी क्षेत्र की भौगोलिक और जलवायु विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए आपदा प्रबंधन में नई दिशा देने वाला साबित हो सकता है। सतही तापमान में वृद्धि, टोपोग्राफी और मानसूनी प्रभावों के कारण बादल फटना और अतिवृष्टि की घटनाएं तेज़ी से बढ़ रही हैं, जो स्थानीय लोगों के जीवन और खेती पर गंभीर प्रभाव डाल रही हैं। अतः इस क्षेत्र के लिए सतत् निगरानी, पूर्व चेतावनी प्रणाली और प्रभावी आपदा प्रबंधन रणनीतियों का विकास आवश्यक हो गया है।

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