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बच्चे की नाराज़गी से घबराते हैं? पेरेंटिंग एक्सपर्ट की ये सलाह ज़रूर पढ़ें

  • लेखक की तस्वीर: ANH News
    ANH News
  • 29 सित॰
  • 3 मिनट पठन
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आज के समय में परिवारों के भीतर एक चुपचाप लेकिन गहरी मनोवैज्ञानिक उलझन उभरकर सामने आ रही है—जहाँ पहले बच्चे माता-पिता से डरते थे, अब कई बार माता-पिता ही अपने बच्चों से डरने लगे हैं। यह बदलाव केवल व्यवहारिक नहीं, बल्कि पेरेंटिंग के मूल ढांचे को प्रभावित करने वाला है।


पेरेंटिंग कोच पुष्पा शर्मा बताती हैं कि यह डर माता-पिता के भीतर कहीं न कहीं एक गहरे असुरक्षा बोध से उपजता है—उन्हें लगता है कि अगर वे अपने बच्चों को कुछ कहेंगे, उन्हें रोकेंगे या टोकेंगे, तो शायद बच्चा उनसे दूरी बना लेगा, बात करना बंद कर देगा या घर में तनाव का माहौल बन जाएगा। धीरे-धीरे यह डर इतना गहराता है कि माता-पिता बोलना ही छोड़ देते हैं, और घर के माहौल में संवाद की जगह चुप्पी पसर जाती है। यही वह बिंदु होता है जहाँ से असंतुलित और कमजोर पेरेंटिंग की शुरुआत होती है।

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बच्चों के बड़े होने के साथ उनके व्यवहार में बदलाव स्वाभाविक है—उनका आत्मविश्वास बढ़ता है, शारीरिक भाषा बदलती है, और कई बार आवाज में गुस्सा या तीखापन आ जाता है। ऐसे में जब वे किसी बात पर ऊँची आवाज में जवाब देते हैं या रूखे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, तो माता-पिता खुद को आहत, असहाय और डरा हुआ महसूस करने लगते हैं। उनके मन में यह भाव आने लगता है कि शायद उनका बच्चा अब उन्हें समझता नहीं, या उससे संवाद करना फायदेमंद नहीं रहा।


पुष्पा शर्मा कहती हैं कि कई माता-पिता ऐसी स्थिति में "साइलेंट सरेंडर" की अवस्था में पहुँच जाते हैं। यानी वे अपनी भावनाओं को दबा लेते हैं, बस इस डर से कि कहीं बच्चा और दूर न चला जाए। बच्चा अगर कहता है कि "आप मुझे समझते नहीं", "आप मुझसे प्यार नहीं करते", तो माता-पिता आत्मग्लानि से भर जाते हैं और चुप रहना ही बेहतर समझते हैं। यह चुप्पी धीरे-धीरे घर में संवादहीनता को जन्म देती है, और माता-पिता–बच्चे के बीच की दूरी बढ़ती जाती है।

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इस स्थिति को मनोविज्ञान में "रोल रिवर्सल फियर" कहा जाता है। यानी जब पारंपरिक रूप से निर्णय लेने वाले माता-पिता की भूमिका कमजोर पड़ने लगती है और बच्चा परिवार का नियंत्रण अपने हाथ में लेने लगता है। पेरेंट्स की अथॉरिटी और मार्गदर्शन की जगह बच्चे का मूड और रवैया केंद्र में आ जाता है। लेकिन यह एक अस्वस्थ स्थिति है—क्योंकि चाहे बच्चा कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, उसे माता-पिता की गाइडेंस, सीमाएँ और भावनात्मक स्थिरता की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है।


पेरेंटिंग कोच के अनुसार इस स्थिति से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है—माता-पिता को अपने भीतर की ताकत को फिर से जाग्रत करना होगा। बच्चों की ऊँचाई, उनकी तेज आवाज या आत्मविश्वास भले ही कभी-कभी डराने वाला लगे, लेकिन पेरेंट्स की आंतरिक स्थिरता, सीमाएँ तय करने की क्षमता, और प्यार में सख्ती का संतुलन इससे कहीं अधिक शक्तिशाली होता है।


पुष्पा शर्मा का सुझाव है कि माता-पिता को शांत भाव से लेकिन आत्मविश्वास के साथ घर में स्पष्ट बाउंड्रीज़ तय करनी चाहिए। उन्हें डरने या झुकने की जरूरत नहीं है, बल्कि इस बात को समझने की ज़रूरत है कि बच्चे के बर्ताव के पीछे भी अक्सर भ्रम, असुरक्षा या दबाव छिपा होता है। जब माता-पिता लगातार संवाद बनाए रखते हैं, प्यार और अनुशासन का संतुलन साधते हैं, तो बच्चा भी धीरे-धीरे उस संबंध की गरिमा को समझने लगता है और सम्मान देना सीखता है।


आज की पेरेंटिंग में ‘डर’ के नहीं, बल्कि संवेदनशील नेतृत्व के गुणों की ज़रूरत है—जहाँ माता-पिता खुद को बच्चों के दोस्त के रूप में पेश करें, लेकिन मार्गदर्शक और संतुलित व्यक्तित्व के रूप में उपस्थित रहें। यही वह संतुलन है जो एक मजबूत, सकारात्मक और भरोसेमंद पारिवारिक रिश्ता कायम कर सकता है।

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